रविवार, 27 मई 2012

मुक्तक



दिल में जो तमन्ना है जुबां से हम न कह पाते 
नजरो से हम कहतें हैं अपने दिल की सब बातें 
मुश्किल अपनी ये है की   समझ बह कुछ नहीं पातें
पिघल कर मोम हो जाता यदि पत्थर को समझाते


प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 24 मई 2012

ग़ज़ल


सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते है

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते है

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते है

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करते है

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते है




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 23 मई 2012

मुक्तक


मयखाने की चौखट को कभी मदिर न समझना तुम
मयखाने जाकर पीने की मेरी आदत नहीं थी ...

चाहत से जो देखा मेरी ओर उन्होंने
आँखों में कुछ छलकी मैंने थोड़ी पी थी...




प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना 

ग़ज़ल




बोलेंगे  जो  भी  हमसे  बो ,हम ऐतवार कर  लेगें      
जो कुछ  भी उनको प्यारा  है ,हम उनसे प्यार कर  लेगें 

बो  मेरे   पास  आयेंगे   ये  सुनकर  के   ही  सपनो  में 
 क़यामत  से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें 

मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें

जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है 
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें 

हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बो हमको 
गर  अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें



ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 मई 2012

ग़ज़ल




क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में ..

एक जमी बक्शी  थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानाबता के चहेरे पर  
अपराधी को सरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में.
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना