गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

दीवाली और मैं






दीवाली का पर्ब है फिर अँधेरे में क्यों रहूँ
आज मैनें फिर तेरी याद के दीपक जला लिए   …







प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

त्योहार की मूल भावना




दीवाली का परब आने बाला है आज हम दीवाली जिस बजह से मनाते हैं उसे भूलकर केबल छदम दिखाबा करके ही परम्पराओं का पालन कर रहें हैं . त्योहार की  मूल भावना तो ना जानें कहाँ गुम सी हो गयी है 




दीवाली



बह हमसे बोले हसंकर कि आज है दीवाली
उदास क्यों है दीखता क्यों बजा रहा नहीं ताली
मैं कैसें उनसे बोलूं कि जेब मेरी ख़ाली
जब हाथ भी बंधें हो कैसें बजाऊँ ताली

बह बोले मुस्कराके धन से क्यों न खेलते तुम
देखो तो मेरी ओर दुखों को क्यों झेलते तुम
इन्सान कर्म पूजा सब को धन से ही तोलते हम
जिसके ना पास दौलत उससे न बोलते हम

मैंने जो देखा उनको खड़ें बह मुस्करा रहे थे
दीवाली के दिन तो बह दौलत लुटा रहे थे
मैनें कहा ,सच्चाई मेरी पूजा इंसानियत से नाता
तुम जो कुछ भी कह रहे हो ,नहीं है मुझको भाता

बह बोले हमसे हसकर ,कहता हूँ बह तुम सुन लो
दुनियां में मिलता सब कुछ खुशियों से दामन भर लो
बातों में है क्या रक्खा मौके पे बात बदल लो
पैसों कि खातिर दुनियां में सब से तुम सौदा कर लो

बह बोले हमसे हंसकर ,हकीकत भी तो यही है
इंसानों क़ी है दुनिया पर इंसानियत नहीं है
तुमको लगेगा ऐसा कि सब आपस में मिले हैं
पर ये न दिख सकेगा दिल में शिक्बे और गिले हैं

मैनें जो उनसे कहा क्या ,क्या कह जा रहे हैं
जो कुछ भी तुमने बोला ना हम समझ पा रहे हैं
मेरी नजर से देखो दुनियां में प्यार ही मिलेगा
दौलत का नशा झूठा पल भर में ये छटेगा

दौलत है आनी जानी ये तो तो सब ही जानतें हैं
ये प्यार भरी दुनियां बस हम प्यार मानतें है
प्रेम के दीपक, तुम जब हर दिल में जलाओगे
सुख शांति समृधि की सच्ची दौलत तुम पाओगे

बह बात सुन कर बोले ,यहाँ हर रोज है दीवाली
इन्सान की इस दुनियां का बस इश्वर है माली
बह मुस्करा के बोले अब हम तो समझ गएँ हैं
प्रेम के दीपक भी मेरे दिल में जल गएँ हैं

प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना


सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर राजेंद्र यादव

हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर राजेंद्र यादव को बिनम्र श्रद्धांजली 
भगबान उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिबार को दुःख कि इस काल में धैर्य दें।  



हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर राजेंद्र यादव का सोमवार देर रात निधन हो गया. वह 85 साल के थे.28 अगस्त 1929 को आगरा में जन्मे यादव की गिनती चोटी के लेखकों में होती रही है। वह मुंशी प्रेमचंद की पत्रिका हंस का 1986 से संपादन करते रहे थे जो हिन्दी की सर्वाधिक चर्चित साहित्यिक पत्रिका मानी जाती है और इसके माध्यम से हिन्दी के नये लेखकों की एक नई पीढ़ी भी सामने आई और इस पत्रिका ने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श को भी स्थापित किया।
यादव के प्रसिद्ध उपन्यास सारा आकाश पर बासु चटर्जी ने एक फिल्म भी बनाई थी। उनकी चर्चित कृतियों में जहां लक्ष्मी कैद है..,छोटे छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, ढोल जैसे कहानी संग्रह और उखड़े हुये लोग, शह और मात, अनदेखे अनजान पुल तथा कुलटा जैसे उपन्यास भी शामिल है। उन्होंने अपनी पत्नी मन्नू भंडारी के साथ एक इंच मुस्कान नामक उपन्यास भी लिखा। यादव ने विश्व प्रसिद्ध लेखक चेखोव तुर्गनेव और अल्वेयरकामो जैसे लेखकों के कृत्यों का भी अनुवाद किया था। यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से एमए किया था और वह कोलकता में भी काफी दिनों तक रहे। वह संयुक्त मोर्चा सरकार में प्रसार भारती के सदस्य भी बनाये गये थे।
अपने लेखन में समाज के वंचित तबके और महिलाओं के अधिकारों की पैरवी करने वाले राजेंद्र यादव प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद की ओर से शुरू की गई साहित्यिक पत्रिका क्लिक करें हंस का 1986 से संपादन कर रहे थे.
अक्षर प्रकाशन के बैनर तले उन्होंने इसका पुर्नप्रकाशन प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई 1986 से शुरू किया था.
प्रेत बोलते हैं (सारा आकाश), उखड़े हुए लोग, एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ), अनदेखे अनजान पुल, शह और मात, मंत्रा विद्ध और कुल्टा उनके प्रमुख उपन्यास हैं.
इसके अलावा उनके कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं. इनमें देवताओं की मृत्यु, खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक और वहाँ पहुँचने की दौड़ प्रमुख हैं. इसके अलावा उन्होंने निबंध और समीक्षाएं भी लिखीं.
आवाज़ तेरी के नाम से राजेंद्र यादव का 1960 में एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ था. चेखव के साथ-साथ उन्होंने कई अन्य विदेशी साहित्यकारों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया था.
उनकी रचना सारा आकाश पर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बनी थी.
राजेंद्र यादव ने कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ मिलकर हिंदी साहित्य में नई कहानी की शुरुआत की थी.
लेखिका मन्नू भंडारी के साथ राजेंद्र यादव का विवाह हुआ था. उनकी एक बेटी हैं. उनका वैवाहिक जीवन बहुत लंबा नहीं रहा और बाद में उन्होंने अलग-अलग रहने का फ़ैसला किया था.
हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर राजेंद्र यादव को बिनम्र श्रद्धांजली 
भगबान उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिबार को दुःख कि इस काल में धैर्य दें

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

मेरी पोस्ट (आपका ब्लॉग एबीपी न्यूज़ में )

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि  मेरी पोस्ट  एबीपी न्यूज़, अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

मेरी पोस्ट (आपका ब्लॉग एबीपी न्यूज़ में )


http://aapkablog.abpnews.newsbullet.in/life-style/2013/10/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%A8-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%81%E0%A4%A7-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%A5





 परम्पराओं का पालन या अँध बिश्बास का खेल
(करबा चौथ )
करवाचौथ के दिन
भारतबर्ष में सुहागिनें
अपने पति की लम्बी उम्र के लिए
चाँद दिखने तक निर्जला उपबास रखती है .
पति पत्नी का रिश्ता समस्त
इस धरती पर सबसे जरुरी और पवित्र रिश्ता है
आज के इस दौर में जब सब लोग
एक दुसरे की जान लेने पर तुलें हुयें हों
तो आजकल पत्नी का पति के लिए उपवास रखना
किसी अजूबे से कम नहीं हैं।
कहाबत है कि करवा चौथ का व्रत रखने से
पति की आयु बढती है और प्यार भी
तो क्या जिनके खानदान में ये परंपरा है
क्या वहां कोई विधवा नहीं होती
और वहां कभी कोई तलाक नहीं हुआ
अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यूं ये दिखावा
ऐसें भी दम्पति हैं सारे साल लड़ते झगड़ते है
और फिर ये दिखावा करते है
क्या जो महिलाये ये व्रत नहीं रखती
वो अपने पति से प्यार नहीं करती
क्या उनके मन में
अपने पति की उम्र की लम्बी कामना नहीं होती
क्या वे विधवा हो जाती है
नहीं ऐसा कुछ नहीं होता
हम सब ये सब जानते हैं
फिर भी ये परंपरा निभाते चले जाते है
ये अंधविश्वास नहीं तो और क्या है
आज जरुरत है पुराने अंधविश्वास को छोड़कर
नयी मान्यताओ को लेकर आगे बढना
जिसका कोई ठोस मकसद हो
वेसे भी क्या एक दिन ही काफी है
पति के लम्बी उम्र की कामना के लिए
बाकी के दिन नहीं
अगर हर रोज ये कामना करनी हैं
फिर ये करवा चौथ क्यों ?
आज के समय में
जरुरत है कि
नयी परम्पराओं को जन्म देकर
आपसी रिश्ता
कैसे मजबूत कर सकें
परस्पर मिलकर खोज करने की।
मेरी पत्नी को समर्पित एक कबिता :
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अर्पण आज तुमको हैं जीवन भर की सब खुशियाँ
पल भर भी न तुम हमसे जीवन में जुदा होना
रहना तुम सदा मेरे दिल में दिल में ही खुदा बनकर
ना हमसे दूर जाना तुम और ना हमसे खफा होना
अपनी तो तमन्ना है सदा हर पल ही मुस्काओ
सदा तुम पास हो मेरे ,ना हमसे दूर हो पाओ
तुम्हारे साथ जीना है तुम्हारें साथ मरना है
तुम्हारा साथ काफी हैं बाकी फिर क्या करना है
अनोखा प्यार का बंधन इसे तुम तोड़ ना देना
पराया जान हमको अकेला छोड़ ना देना
रहकर दूर तुमसे हम जियें तो बह सजा होगी
ना पायें गर तुम्हें दिल में तो ये मेरी खता होगी


मेरी पोस्ट (आपका ब्लॉग एबीपी न्यूज़ में )

मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

प्यार की ख्वाहिश





















प्यार की ख्वाहिश



गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे जिस तरह से यार है


संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सो बेकार है


सोचते है जब कभी हम क्या मिला क्या खो गया
दिल जिगर साँसें हैं  अपनी पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते हैं  हम
प्यार से बह  दर्द दे दें  तो हमें  स्वीकार है

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह खुशबु मिली है
अब नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है

ये ख्वाहिश अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे
क्या मदन इसको ही कहते लोग अक्सर प्यार है





मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

मुश्किल समय




  














मुश्किल समय :



उसे हम दोस्त क्या मानें  दिखे मुश्किल में मुश्किल से
मुसीबत में भी अपना हो उसी को दोस्त मानेगें

जो दिल को तोड़ ही डाले उसे हम प्यार क्या जानें
दिल से दिल मिलाये जो उसी को प्यार जानेंगें



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बाप बेटा  माँ या बेटी  स्वार्थ के रिश्ते सभी से
उम्र के अंतिम सफ़र में अपना नहीं कोई दोस्तों

स्वप्न थे सबके दिलों में अपना प्यार हो परिबार हो
स्वार्थ लिप्सा देखकर अब सपना नहीं कोई दोस्तों


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अपने  और गैरों में फर्क करना नहीं यारों
मर्जी क्या खुदा की हो अपने कौन हो जाएँ

जिसे पाला जिसे पोषा अगर बन जायें बह कातिल
हंसी जीवन गुजरने के  सपनें मौन हो जाएँ


प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बह सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

इन्सान कि इंसानियत के गीत अब मत गाइए
हमको हमेशा स्वार्थ की मिलती रही तामीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

ब्याकुल हुआ है मदन अब आज के हालत से
आज अपनी लेखनी बनती न क्यों शमशीर है

 


मदन मोहन सक्सेना