प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत
ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , (सांसों के जनाजें को तो सब ने जिंदगी जाना) जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
देखा जब नहीं उनको और हमने गीत ना गाया
जमाना हमसे ये बोला की फागुन क्यों नहीं आया फागुन गुम हुआ कैसे ,क्या तुमको कुछ चला मालूम
कहा हमने ज़माने से कि हमको कुछ नहीं मालूम पाकर के जिसे दिल में ,हुए हम खुद से बेगाने
उनका पास न आना ,ये हमसे तुम जरा पुछो बसेरा जिनकी सूरत का हमेशा आँख में रहता
उनका न नजर आना, ये हमसे तुम जरा पूछो जीवित है तो जीने का मजा सब लोग ले सकते
जीवित रहके, मरने का मजा हमसे जरा पूछो रोशन है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
अँधेरा दिन में दिख जाना ,ये हमसे तुम जरा पूछो खुदा की बंदगी करके मन्नत पूरी सब करते
इबादत में सजा पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो तमन्ना सबकी रहती है जन्नत उनको मिल जाए
जन्नत रस ना आना ये हमसे तुम जरा पूछो सांसों के जनाजें को तो सव ने जिंदगी जाना
दो पल की जिंदगी पाना, ये हमसे तुम जरा पूछो सांसों के जनाजें को तो सव ने जिंदगी जाना
वह हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं
जिस गलती पर हमको वह समझाने लगते है
वह उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं
दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं
शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं
क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं
आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं
जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा शहर में ठिकाना खोजा पता नहीं आजकल हर कोई मुझसे आँख मिचौली का खेल क्यों खेला करता है जिसकी जब जरुरत होती है गायब मिलता है और जब जिसे नहीं होना चाहियें जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है कल की ही बात है मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूं पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना था जबसे इधर क्या आया या कहिये कि मुंबई जैसे महानगर की दीबारों के बीच आकर फँस गया पूछा क्या बात है आजकल आती नहीं हो इधर। पहले तो आंगन भर-भर आती थी। दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा। पड़ोसियों ने अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी। अक्सर सुबह देखता हूं पड़ी रहती हो आजकल उनके छज्जों पर हमारी छत तो अब तुम्हें सुहाती ही नहीं ना लेकिन याद रखो ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग बड़ी सादगी से लूटते हैं फिर चाहे वो इज्जत हो या दौलत। महीनों के बाद मिली हो इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली उसने कुछ बोला नहीं बस हवा में खुशबु घोल कर खिड़की के पीछे चली गई सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ धत्त तेरी की फिर गायब ये महानगर की धूप भी न बिलकुल तुम पर गई है हमेशा आँख मिचौली का खेल खेल करती है और मैं न जाने क्या क्या सोचने लग गया उसके बारे में महानगर के बारे में और जिंदगी के बारे में