देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
हम आज तक खामोश हैं और वो भी कुछ कहते नहीं
दर्द के नग्मों में हक़ बस मेरा नजर आता है
देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
अब क़यामत में उम्मीदों का सवेरा नजर आता है
क्यों रोशनी के खेल में अपना आस का पँछी जला
हमें अँधेरे में हिफाज़त का बसेरा नजर आता है
इस कदर अनजान हैं हम आज अपने हाल से
हकीकत में भी ख्वावों का घेरा नजर आता है
ये दीवानगी अपनी नहीं तो और फिर क्या है मदन
हर जगह इक शख्श का मुझे चेहरा नजर आता है
देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
मदन मोहन सक्सेना
अच्छी कविता !
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उम्दा रचना
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