प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १२ ,सितम्बर २०१६ में प्रकाशितहुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं
भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं
महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं
ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं
मुश्किल यार ये कहना किसका अब समय कैसा
समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं।
मदन मोहन सक्सेना
'महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
जवाब देंहटाएंमुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं '
- अनुत्तरित प्रश्न है .उत्तर की संभावना भी नहीं.