गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बह सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

इन्सान कि इंसानियत के गीत अब मत गाइए
हमको हमेशा स्वार्थ की मिलती रही तामीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

ब्याकुल हुआ है मदन अब आज के हालत से
आज अपनी लेखनी बनती न क्यों शमशीर है

 


मदन मोहन सक्सेना




6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति-

    आभार आदरणीय-

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  2. सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
    रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

    सुंदर विचारणीय प्रस्तुति..साथ ही बधाई आपको।।।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बहुत बधाई
    सार्थक अभिव्यक्ति
    नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  4. Extremely well written and well presented .. kudos to u ..congrats

    plz visit :
    http://swapnilsaundaryaezine.blogspot.in/2014/01/vol-01-issue-04-jan-feb-2014.html

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