आँख से अब नहीं दिख रहा है जहाँ ,आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा ,कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए.
उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा ,दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा.
आग होती है क्या आज मालूम चला,जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए.
शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी.
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए..
ज्यों जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए.
मदन मोहन सक्सेना
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति महोदय । बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंनिराल जी की चंद पंक्तियां आप को सर्मित -–
समय निर्झर बह गया है,
रेत ज्यों तन रह गया है ।
आम की यह डाल जो सुखी दिखी ,
कह रही है अब यहां काक-पीक नहीं आते ।
आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
जवाब देंहटाएंआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
शब्दों की मुस्कुराहट पर
जवाब देंहटाएं...संग्रहनीय लेखन बड़ी शख्सियत -- प्रवीण पाण्डेय जी
very nice presentation
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