बुधवार, 2 नवंबर 2016

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता




दीवारें ही दीवारें , नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले हैं

उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं

जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है

मिलता अब समय ना है , समय ये आ गया कैसा
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं







जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता


मदन मोहन सक्सेना































बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

कहतें दीपक जलता है







 


किस की कुर्वानी को किसने याद रखा है दुनियाँ में
जलता तेल औ बाती है कहतें दीपक जलता है

पथ में काँटें लाख बिछे हो मंजिल मिल जाती है उसको
बिन भटके जो इधर उधर ,राह पर अपनी चलता है

मिली दौलत मिली शोहरत मिला है यार सब कुछ क्यों
जैसा मौका बैसी बातें , जो पल पल बात बदलता है

छोड़ गया जो पत्थर दिल ,जिसने दिल को दर्द दिया है
दिल भी कितना पागल है ये उसके लिए मचलता है

दो पल गए बनाने में औ दो पल गए निभाने में
रिश्तों के कोलाहल में ये जीवन ऐसे ही चलता है


कहतें दीपक जलता है

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

सब एक जैसे

आमिर शाहरुख़ सलमान सब एक जैसे 
सिर्फ चिंता अपनी फिल्मों की

रविवार, 18 सितंबर 2016

फिर एक बार

फिर एक बार 




फिर एक बार देश ने आंतकी हमला झेला 
फिर एक बार कई सैनिक शहीद हो गए 
फिर एक बार परिबारों ने अपनोँ  को खोने का दंश झेला 
फिर एक बार गृह , रक्षा मंत्री ने घटना स्थल का दौरा किया
फिर एक बार हाई लेवल मीटिंग की गयी 
फिर एक बार 
सभी दलों ने घटना की निंदा की 
फिर एक बार मीडिया में चर्चा हुयी 
फिर एक बार 
प्रधान मंत्री ने देश को भरोसा दिलाया कि  गुनाहगार को बख्शा नहीं जायेगा 




मदन  मोहन सक्सेना



मंगलवार, 6 सितंबर 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १२ ,सितम्बर २०१६ में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,
बर्ष -२ , अंक १२  ,सितम्बर  २०१६ में प्रकाशितहुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

















अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में 
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं  
 
मुश्किल यार ये कहना  किसका अब समय कैसा
समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं। 


मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

श्री कृष्णजन्माष्टमी का पर्ब आप सबको मंगलमय हो






उत्थान   पतन  मेरे भगवन है आज तुम्हारे हाथों में
प्रभु जीत तुम्हारें हाथों में प्रभु हार तुम्हारें हाथों में 

मुझमें तुममें है फर्क यही मैं  नर हूँ तुम नारायण हो
मैं खेलूँ जग के हाथों में संसार तुम्हारें हाथों में

तुम दीनबंधु दुखहर्ता हो तुम जग के पालन करता हो
इस मुर्ख खल और कामी का  उद्धार तुम्हारे हाथों में 

मेरे तन मन के तुम स्वामी हो भगवन तुम अंतर्यामी हो 
मेरे जीवन की इस नौका का प्रभु भार तुम्हारे हाथों में

तुम भक्तों के रखबाले हो दुःख दर्द मिटाने  बाले हो
तेरे चरणों में मुझे जगह मिले अधिकार तुम्हारे हाथों में 

श्री कृष्णजन्माष्टमी का पर्ब आप सबको मंगलमय हो

मदन मोहन सक्सेना

 

बुधवार, 17 अगस्त 2016

मेरी पोस्ट , आ गया राखी का पर्ब जागरण जंक्शन में प्रकाशित


 प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , 
आ गया राखी का पर्ब जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
 
  
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राखी का त्यौहार आ ही गया ,इस त्यौहार को मनाने के लिए या कहिये की मुनाफा कमाने के लिए समाज के सभी बर्गों ने कमर कस ली है। हिन्दुस्थान में राखी की परम्परा काफी पुरानी है . बदले दौर में जब सभी मूल्यों का हास हो रहा हो तो भला राखी का त्यौहार इससे अछुता कैसे रह सकता है। मुझे अभी भी याद है जब मैं छोटा था और राखी के दिन ना जाने कहाँ से साल भर ना दिखने बाली तथाकथित मुहबोली बहनें अबतरित हो जातीं थी एक मिठाई का पीस और राखी देकर मेरे माँ बाबु से जबरदस्ती मनमाने रुपये बसूल कर ले जाती थीं। खैर जैसे जैसे समझ बड़ी बाकि लोगों से राखी बंधबाना बंद कर दी। जब तक घर पर रहा राखी बहनों से बंधबाता रहा ,पैसों का इंतजाम पापा करते थे मिठाई बहनें लाती थीं।अब दूर रहकर राखी बहनें पोस्ट से भेज देती हैं कभी कभी मिठाई के लिए कुछ रुपये भी साथ रख देती हैं।यदि अबकाश होता है तो ज़रा अच्छे से मना लेते है। पोस्ट ऑफिस जाकर पैसों को भेजने की ब्यबस्था करके ही अपने कर्तब्यों की इतिश्री कर लेते हैं। राखी को छोड़कर पूरे साल मुझे याद भी रहता है की मेरी बहनें कैसी है या उनको भी मेरी कुछ खबर रखने की इच्छा रहती है ,कहना बहुत मुश्किल है . ये हालत कैसे बने या इसका जिम्मेदार कौन है काफी मगज मारी करने पर भी कोई एक राय बनती नहीं दीखती . कभी लगता है ये समय का असर है कभी लगता है सभी अपने अपने दायरों में कैद होकर रह गए हैं। पैसे की कमी , इच्छाशक्ति में कमी , आरामतलबी की आदत और प्रतिदिन के सँघर्ष ने रिश्तों को खोखला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में
हर इंसान की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी
उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं
पर्व और त्यौहारों के देश कहे जाने वाले अपने देश में कई ऐसे त्यौहार हैं लेकिन इन सभी में राखी एक ऐसा पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और अधिक मजबूत और सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का एक बेहतरीन जरिया सिद्ध हुआ है। राखी को बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बांधते हुए उसकी लंबे और खुशहाल जीवन की प्रार्थना करती हैं वहीं भाई ताउम्र अपनी बहन की रक्षा करने और हर दुख में उसकी सहायता करने का वचन देते हैं।
अब जब पारिवारिक रिश्तों का स्वरूप भी अब बदलता जा रहा है भाई-बहन को ही ले लीजिए, दोनों में झगड़ा ही अधिक होता है और वे एक-दूसरे की तकलीफों को समझते कम हैं ।आज वे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते ज्यादा मिलते है लेकिन जब भाई को अपनी बहन की या बहन को अपनी भाई की जरूरत होती है तो वह मौजूद रहें ऐसी सम्भाबना कम होती जा रही है.
सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक जरूरतों के कारण आज बहुत से भाई अपनी बहन के साथ ज्यादा समय नहीं बिता पाते ऐसे में रक्षाबंधन का दिन उन्हें फिर से एक बाद निकट लाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। लेकिन बढ़तीं महंगाई , रिश्तों के खोखलेपन और समय की कमी की बजह से बहुत कम भाई ही अपनी बहन के पास राखी बँधबाने जा पाते हों . सभी रिश्तों की तरह भाई बहन का रिश्ता भी पहले जैसा नहीं रहा लेकिन राखी का पर्ब हम सबको सोचने के लिए मजबूर तो करता ही है कि सिर्फ उपहार और पैसों से किसी भी रिश्तें में जान नहीं डाली जा सकती। राखी के परब के माध्यम से भाई बहनों को एक दुसरे की जरूरतों को समझना होगा और एक दुसरे की दशा को समझते हुए उनकी भाबनाओं की क़द्र करके राखी की महत्ता को पहचानना होगा। अंत में मैं अपनी बात इन शब्दों से ख़त्म करना चाहूगां .
आ गया राखी का पर्ब
मदन मोहन सक्सेना

खेल ओलंपिक और हम

 

 

   

बीसबीं सदी के पुर्बाध में
भूतकाल के शुष्क धरातल पर 
जब हमारें पुर्बजों ने 
भबिष्य की आबश्यक्तायों की   पूर्ति के लिए 
अपने देश में   आयत करके
भ्रष्टाचार का एक बीज रोपा था 
इस बिश्बास के साथ कि
आगे आने बाले समय  में 
नयी पीढ़ियों का जीवन सुखद सरल एबम सफल होगा
किन्तु इस आशंका से
बे भयाक्रांत ब्याकुल एबम चिंतित थे
कि कहीं
धर्मनिरपेछ्ता ,सदाचार ,साम्प्रदयिक सदभाब 
कर्तब्यनिष्टा ,देशप्रेम,नामक घातक प्रहारों से
निति निर्माताओं, रहनुमाओं एबम  राजनेताओं के द्वारा
उसकी असामयिक हत्या ना कर दी जाये
किन्तु  उनकी ये आशंका
निर्मूल ,निरर्थक ,बेअसर साबित हुयी
जब बीसबीं सदी के उतरार्ध में
उनके बच्चों ने  जिसमें
चिकित्सक ,अध्यापक ,एबम राजनेता
लेखक पत्रकार और अभिनेता
बैज्ञानिक ,धर्मगुरु ,क्रेता बिक्रेता 
सभी ने  एक साथ मिलकर
अपने अथक प्रयासों से
बृक्ष   के फलने फूलने में बराबर का योगदान दिया
आज कल हम सब ने
घृणा  स्वार्थ नफ़रत हिंसा एबम दहशत का बाताबरण
तैयार कर  के 
हत्या ,राहजनी एबम लूटपाट 
अपहरण ,आतंकबाद  और  मारकाट नामक 
उत्प्रेरकों कि उपस्थिति से 
आर डी एक्स ,ऐ के सैतालिस नामक
उन्नत तकनीकी सयंत्रों के   सयोंग से
धर्म ,शिक्षा, राजनीतिएबम खेलों में
भ्रष्टाचार के पौधे को चरम सीमा तक
पुष्पित पल्लिबत होने दिया है
हमें बिश्बास है कि
ईकीसबी सदी   में भी
हमारे बच्चे पूरी कोशिश करेंगें
ताकि येबृक्ष  फलता फूलता रहे
और अगर इसी तरह से ये कोशिश जारी रही
तो बह दिन दूर नहीं 
जब गली -गली ,  शहर- शहर ,घर -घर में 
इसका युद्ध स्तर पर ब्यब सायिक उत्पादन शुरू होगा 
और उस दिन हम ,तब 
भ्रष्टाचार के फल फूल बीज  को 
पुरे संसार में निर्यात कर सकेंगें 
उस पल पूरा संसार 
भ्रष्टाचार  को पाने के लिए 
आश्रित रहेगा 
हम   पर और सिर्फ हम पर
और 
ओलम्पिक के खेलो में 
गोल्ड मैडल अपना पक्का होने बाला  है 
 



खेल ओलंपिक और हम

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है








अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल 

ख्वाबों और यादों की गली में उम्र गुजारी है
समय के साथ दुनिया में है रह पाना बहुत मुश्किल

कहने को तो कह लेते है अपनी बात सबसे हम
जुबां से दिल की बातो को है कह पाना बहुत मुश्किल 

ज़माने से मिली ठोकर तो अपना हौसला बढता
अपनों से मिली ठोकर तो सह पाना बहुत मुश्किल 

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है 
क्या खोया और क्या पाया  कह पाना बहुत मुश्किल
 


कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है


मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 1 अगस्त 2016

मेरी पोस्ट , आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की जागरण जंक्शन में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , 
आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की  जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .


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 नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह दूरियाँ आकाश की


आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
आती नहीं है रास अब दोस्ती बहुत ज्यादा पास की


बँट गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की


हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
अब हर कोई कहने लगा है आरजू बनवास की


मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी दुनिया, है बिरोधाभास की


आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की

 मेरी पोस्ट , आज हम फिर बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की  जागरण जंक्शन में प्रकाशित 


मदन मोहन सक्सेना