बुधवार, 6 मार्च 2013

मजबूरी


















आँखों  में  जो सपने थे सपनो में जो सूरत थी
नजरें जब मिली उनसे बिलकुल बैसी  मूरत थी

जब भी गम मिला मुझको या अंदेशे कुछ पाए हैं
बिठा के पास अपने  उन्होंने अंदेशे मिटाए हैं

उनका साथ पाकर के तो दिल ने ये ही  पाया है
अमाबस की अँधेरी में ज्यों चाँद निकल पाया है

जब से मैं मिला उनसे  दिल को यूँ खिलाया है
अरमां जो भी मेरे थे हकीकत में मिलाया है

बातें करनें जब उनसे  हम उनके पास हैं जाते
चेहरे  पे जो रौनक है उनमें हम फिर खो जाते

ये मजबूरी जो अपनी है  हम उनसे बच नहीं पाते
देखे रूप उनका तो हम बाते कर नहीं पाते 

बिबश्ता देखकर मेरी सब कुछ बो समझ  जाते 
हमसे  आँखों से ही करते हैं अपने दिल की सब बातें




काब्य प्रस्तुति :   
मदन मोहन सक्सेना



5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भाव लिए बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति.

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  2. जो सपनों में है वो हकीकत में मिल जाए तो बात ही की ...
    लाजवाब गज़ल ...

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  3. बहुत खूब, सुन्दर प्रस्तुति.
    नीरज'नीर'
    KAVYA SUDHA (काव्य सुधा)

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  4. उनका साथ पाकर के तो दिल ने ये ही पाया है
    अमाबस की अँधेरी में ज्यों चाँद निकल पाया है

    बहुत बढ़िया ....सुन्दर

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