गुरुवार, 16 अगस्त 2012

हिंसा का खेल



असम के कुछ इलाकों में फिर से हिंसा का खेल शुरू हो गया है .राज्य सरकार और केंद्र अपनी मजबूरियों का रोना रो रही है . सोनिया जी और मनमोहन जी असम में रस्म अदायगी कर आये है और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया न जाने किसके दबाब में अपनी जिम्मेदारी से मुहँ चुरा रहा है . जनता को तो अपनी पेट की भूख शांत करने से  फुर्सत ही नहीं मिलती की कुछ विचार कर सके  और जिनकी जिम्मेदारी है बो लाशों में बोट तलाशने की जुगत कर रहें है। 











क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
सबने  खुद को पाया है क्यों  खुदगर्जी के घेरे में

एक जमी बक्शी थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में

आज नजर आती मायूसी मानबता के चेहरे पर
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत अहसास हर लफ्ज़ में आपने भावों की बहुत गहरी अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है...

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  2. Ghuta ghuta sa ji raha hai har koi,dhudhti firti hain chanchal aankhe jewwan jine ki koi disha nayi

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    1. बहुत आभार जो आप ने रचना का अवलोकन किया !
      भविष्य में ऐसी ही कृपा का आकांक्षी रहूँगा! धन्यवाद

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