ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए है
कामचोरी धूर्तता चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए है
दूसरो का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए है
अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पोरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए है
नाज हमको था कभी पर आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सरे ढह गए
मदन मोहन सक्सेना
BAHUT HI SUNDAR PRASTUTI,नाज हमको था कभी पर आज सर झुकता शर्म से
जवाब देंहटाएंकल तलक जो थे सुरक्षित आज सरे ढह गए BEHTAREEN
सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना....
जवाब देंहटाएंअनु