मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

गर कोई देखना चाहें





















कैसी सोच अपनी है ,किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें वतन  मेरे वो  आ जाये

तिजोरी में भरा धन है ,मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी  भुखमरी में क्यों  जीबन बीतता जाये

ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें

कभी बाँटा  धर्म ने है ,कभी  जाति में खो जाते
क्यों हमारें रह्नुमाओं का, असर सब पर नजर आये

ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा तंत्र है   यारों , ये जल्दी से गुजर जाये


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

4 टिप्‍पणियां:

  1. देश के हालात के प्रति चिंता की अच्छी अभिव्यक्ति, शुभकामनाएँ.

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  2. बहुत खूब.....सुन्दर अभिव्यक्ति और संवेदना ...

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  3. ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
    हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें

    ठीक कहा आपने.....जुगलबंदी ही तो है....

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