कैसी सोच अपनी है ,किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें वतन मेरे वो आ जाये
तिजोरी में भरा धन है ,मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीबन बीतता जाये
ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें
कभी बाँटा धर्म ने है ,कभी जाति में खो जाते
क्यों हमारें रह्नुमाओं का, असर सब पर नजर आये
ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा तंत्र है यारों , ये जल्दी से गुजर जाये
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
देश के हालात के प्रति चिंता की अच्छी अभिव्यक्ति, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंवाह,,,बेहतरीन उम्दा गजल ,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: वजूद,
बहुत खूब.....सुन्दर अभिव्यक्ति और संवेदना ...
जवाब देंहटाएंना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
जवाब देंहटाएंहर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें
ठीक कहा आपने.....जुगलबंदी ही तो है....