सोमवार, 15 जुलाई 2013
गुरुवार, 11 जुलाई 2013
तत्सम पत्रिका में प्रकाशित मेरी कुछ क्षणिकाएँ
तत्सम पत्रिका में प्रकाशित मेरी कुछ क्षणिकाएँ .
एक :
संबिधान है
न्यायालय है
मानब अधिकार आयोग है
लोकतांत्रिक सरकार है
साथ ही
आधी से अधिक जनता
अशिक्षित ,निर्धन और लाचार है .
दो:
कृषि प्रधान देश है
भारत भी नाम है
भूमि है ,कृषि है, कृषक हैं
अनाज के गोदाम हैं
साथ ही
भुखमरी, कुपोषण में भी बदनाम है .
तीन:
खेल है
खेल संगठन हैं
खेल मंत्री है
खेल पुरस्कार हैं
साथ ही
खेलों के महाकुम्भ में
पदकों की लालसा में
सौ करोड़ का भारत भी देश है .
मदन मोहन सक्सेना .
रविवार, 7 जुलाई 2013
धमाका
एक और आतंकी धमाका
जगह बदली
किन्तु
तरीका नहीं बदला
बदला लेने का
एक बार फिर धमाका
मीडिया में फिर से शोर
नेताओं को घटना स्थल पहुचनें की बेकरारी
सुरक्षा एजेंसियों की एक
और जांच पड़ताल
राजनेताओं में एक और हड़कंप,
आम लोगों को अपने बजूद की चिंता
सुरक्षा एजेंसियों को अपने साख बचाने की चिंता
जगह जगह छापे
और फिर
यदि कोई सूत्र मिला भी
और आंतकी हत्थे लगा भी तो
फिर से बही क़ानूनी पेचीदगियाँ
फिर से
कोर्ट दर कोर्ट का सफ़र
और यदि सजा हो भी गयी
फिर से रहम की गुजारिश
फिर से दलगत और प्रान्त की राजनीति
और
फिर से
बही पुनराब्रती
सच में कितना अजीब लगता है
जब आंतकी
और मानब अधिकारबादी
मौत की सजा माफ़ करने की बात करतें है
उनके लिए (आंतकी )
जिसने मानब को कभी मानब समझा ही नहीं .
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 2 जुलाई 2013
शून्यता
जिसे चाहा उसे छीना , जो पाया है सहेजा है
उम्र बीती है लेने में ,मगर फिर शून्यता क्यों हैं
सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना
देने में ख़ुशी जो है, कोई बिरला सीखता क्यों है
कहने को तो , आँखों से नजर आता सभी को है
अक्सर प्यार में ,मन से मुझे फिर दीखता क्यों है
दिल भी यार पागल है ,ना जाने दीन दुनिया को
दिल से दिल की बातों पर आखिर रीझता क्यों है
आबाजों की महफ़िल में दिल की कौन सुनता है
सही चुपचाप रहता है और झूठा चीखता क्यों है
मदन मोहन सक्सेना
बुधवार, 26 जून 2013
सियासत
इंसानों की बस्ती पर
कुदरत की सबसे बड़ी मार
नेताओं का तांडव टूरिज्म
तबाही पर नेताओं की सियासत
किसी ने हजारों गुजराती को सुरक्षित ले जाने का दाबा किया
तो कोई आठ दिन बाद अबतरित हुआ और
ताम झाम के साथ राहत सामग्री को भेजता नजर आया
तो कोई कोई हबाई दौरों से ही अपना कर्तब्य पूरा करता नजर आया
भले ही हजारों लोग अब भी राहत का इंतज़ार कर रहे हों
लेकिन
सूबे के मुखिया जिनकी जिम्मेदारी
सूबे के लोगों के जान माल की सुरक्षा करना है
बिज्ञापन देने में ब्यस्त हैं
उत्तराखंड में आई भीषण त्रासदी
राहत कार्यों को लेकर सियासत चरम पर
देहरादून में कांग्रेस और टीडीपी के नेताओं में हाथापाई
हाथापाई राहत का क्रेडिट लेने को लेकर
हंगामे के दौरान टीडीपी अध्यक्ष भी वहां मौजूद
इंसानों की बस्ती पर
कुदरत की सबसे बड़ी मार
नेताओं का तांडव टूरिज्म
तबाही पर नेताओं की सियासत
नेताओं को इस तरह भिड़ते देखकर
लोगों का सिर शर्म से झुक जाए
लेकिन इनको ना शर्म आई और
ना ही उत्तराखंड की तबाही में बर्बाद हुए लोगों की इन्हें फिक्र है
इन्हें फिक्र है तो बस इस बात की कि इनकी सियासत में कुछ गड़बड़ ना हो जाए.
ये कौन सा दौर है
जहाँ आदमी की जान सस्ती है
और राजनीति का ये कौन सा चरित्र है
जहाँ सिर्फ सियासत
ही मायने रखती है
इसके लिए जितना भी गिरना हो
मंजूर है .
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
शुक्रवार, 21 जून 2013
श्रद्धा
कुदरत का कहर
कई हजार लोगों के बीच में फसें होने की उम्मीद
अपनों का इंतज़ार करती आँखें
जिंदगी की चाहत में मौत से पल पल का संघर्ष
फिर से बही गंदी कहानी
शबों से पैसे,गहने लुटते
आदमी के रूप में शैतान
सरकार का बही ढीला रबैया
हजारों के लिए गिनती के हेलिकॉप्टर
राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की कशमकश
इस बीच
खुद को
लाचार ,ठगा महसूस
करता इस देश का नागरिक .
इन सबके बीच
भारतीय सेना के जबानों ने
साबित कर दिया
कि उनके मन में जितनी श्रद्धा
भारत मत के लिए है
उतनी या उससे कहीं अधिक
चिंता देश के अबाम की है .
मदन मोहन सक्सेना .
गुरुवार, 20 जून 2013
फिर एक बार
पहले का केदारनाथ मंदिर |
अभी का केदार नाथ मंदिर |
फिर एक बार कुदरत का कहर
फिर एक बार मीडिया में शोर
फिर एक बार नेताओं का हवाई दौरा
फिर एक बार दानबीरों की कर्मठता
फिर एक बार प्रशाशन का कुम्भकर्णी नींद से जागना
फिर एक बार
मन में कौंधता अनुत्तरित प्रश्न
आखिर ये कब तक
हम चेतेंगें भी या नहीं
आखिर
जल जंगल जमीन की अहमियत कब जानेगें?
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 18 जून 2013
भरमार
एक तरफ देश में जहाँ गरीब जनता अपने लिए दो जून की रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रही है. देश में मंत्रियों का चुनाब काबिलियत के बजाय संबंधों पर किया जा रहा है . जनप्रतिनिधि जनता के प्रति अपनी जबाबदेही समझते ही नहीं है . अपने राजनितिक आकाओं को ही खुश करने में ही लगे रहतें हैं .
कांग्रेस में चाटूकारों की कमी नहीं है। सोनिया की चापलूसी करने वाले उनके लिए कुछ भी कर सकते है। राजनैतिक आका के लिए वफादारी का भोंडा प्रदर्शन करने में कांग्रेसी नेता कभी पीछे नहीं हटते है। कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष और प्रसंस्करण और कृषि विभाग के मंत्री खाद्य चरण दास महंत भी पार्टी अध्यक्ष सोनिया के लिए कुछ भी कर सकते है। अपनी वफादारी साबित करने के लिए वो सोनिया के कहने पर झाड़ू पोंछा करने तक को तैयार है।
महंत ने कहा है कि वह सोनिया के कहने पर पोंछा लगाने को भी तैयार हैं। छत्तीसगढ़ में पार्टी अध्यक्ष और मनमोहन सरकार के मंत्री से जब दोहरी जिम्मेदारी मिलने पर सवाल किया गया तो महंत ने जवाब दिया, 'अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मुझसे झाड़ू उठाकर राज्य कांग्रेस दफ्तर साफ करने को कहेंगी, तो मैं वह भी करूंगा।
हम को खबर लगी आज कल अब ये
चमचों की होने लगी आज भरमार है
प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना
कांग्रेस में चाटूकारों की कमी नहीं है। सोनिया की चापलूसी करने वाले उनके लिए कुछ भी कर सकते है। राजनैतिक आका के लिए वफादारी का भोंडा प्रदर्शन करने में कांग्रेसी नेता कभी पीछे नहीं हटते है। कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष और प्रसंस्करण और कृषि विभाग के मंत्री खाद्य चरण दास महंत भी पार्टी अध्यक्ष सोनिया के लिए कुछ भी कर सकते है। अपनी वफादारी साबित करने के लिए वो सोनिया के कहने पर झाड़ू पोंछा करने तक को तैयार है।
महंत ने कहा है कि वह सोनिया के कहने पर पोंछा लगाने को भी तैयार हैं। छत्तीसगढ़ में पार्टी अध्यक्ष और मनमोहन सरकार के मंत्री से जब दोहरी जिम्मेदारी मिलने पर सवाल किया गया तो महंत ने जवाब दिया, 'अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मुझसे झाड़ू उठाकर राज्य कांग्रेस दफ्तर साफ करने को कहेंगी, तो मैं वह भी करूंगा।
हम को खबर लगी आज कल अब ये
चमचों की होने लगी आज भरमार है
मैडम जब हँसती हैं हँस देते कांग्रेसी
साथ साथ रहने को हुए बेकरार हैं
कद मिले, पद मिले, और मंत्री पद मिले
चमचों का होने लगा आज सत्कार है
चमचों ने पाए लिया ,खूब माल खाय लिया
जनता है भूखी प्यासी ,हुआ हाहाकार है
प्रस्तुति :
शुक्रवार, 14 जून 2013
नीति
हे भारत बासी मनन करो क्या खोया है क्या पाया है
गाँधी सुभाष टैगोर तिलक ने जैसा भारत सोचा था
भूख गरीबी न हो जिसमें , क्या ऐसा भारत पाया है
क्यों घोटाले ही घोटाले हैं और जाँच चलती रहती
पब्लिक भूखी प्यासी रहती सब घोटालों की माया है
अनाज भरा गोदामों में और सड़ने को मजबूर हुआ
लानत है ऐसी नीति पर जो भूख मिटा न पाया है
अब भारत माता लज्जित है अपनों की इन करतूतों पर
बंसल ,नबीन ,राजा को क्यों जनता ने अपनाया है।
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 4 जून 2013
मुश्किल
पाने को आतुर रहतें हैं खोने को तैयार नहीं है
जिम्मेदारी ने मुहँ मोड़ा सुबिधाओं की जीत हो रही.
साझा करने को ना मिलता , अपने गम में ग़मगीन हैं
स्वार्थ दिखा जिसमें भी यारों उससे केवल प्रीत हो रही .
कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी है
जैसा देखा बैसी बातें .जग की अब ये रीत हो रही ...
अब खेलों में है राजनीति और राजनीति ब्यापार हुई
मुश्किल अब है मालूम होना ,किस्से किसकी मीत हो रही
क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में
संग साथ की हार हुई और तन्हाई की जीत हो रही
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 28 मई 2013
शुक्रवार, 24 मई 2013
दोस्ती
कभी गर्दिशों से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ..
इस आस में बीती उम्र कोई हमे अपना कहे .
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ
जिस रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आखो से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ
इस कदर अन्जान हैं हम आज अपने हाल से
हमसे मिलकरके बोला आइना ये शख्श बेगाना हुआ
ढल नहीं जाते हैं लब्ज यूँ ही रचना में कभी
कभी ग़ज़ल उनसे मिल गयी कभी गीत का पाना हुआ
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
बुधवार, 15 मई 2013
कोशिश
13 ट्रेनें , 5,000 बसें और 60 नावों का इंतज़ाम करके समर्थकों को पटना लाने के लिए लालू ने परिबर्तन रैली करके ये दिखाने की कोशिश की है की जनता अब परिबर्तन चाहती हैं .
देखना होगा कि इस तामझाम से लालू परिबार की किस्मत कितनी बदल पाती है.
परिवार, परिवर्तन या पद। चाहिये क्या । पटना के गांधी मैदान में पटे पड़े पोस्टर को देख कर हर किसी ने कहा परिवार। पोस्टर को पढ़ा तो हर किसी को लगा बात तो परिवर्तन की हो रही है। और जब भाषण हुआ तो लगा लड़ाई तो सत्ता की है, पद पाने की है। पटना के गांधी मैदान ने इतिहास बनते हुये भी देखा है और बने हुये इतिहास को गर्त में समाते हुये भी देखा है। लेकिन पहली बार गांधी मैदान ने जाना समझा कि वक्त जब बदलता है तो संघर्ष के बाद परिवर्तन से ज्यादा संघर्ष करते हुये नजर आना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सवाल लालू यादव के लिये इसलिये है क्योंकि कभी जेपी के दांये-बांये खड़े होकर लालू और नीतीश दोनों ने इंदिरा गांधी को घमंडी और तानाशाह कहते हुये जेपी की बातों पर खूब तालियां बजायी हैं। और सत्ता में खोते देश में सत्ता के लिये हर संघर्ष करने वाले को सत्ताधारी अब तानाशाह और घमंडी नजर आने लगा है। यह सच भी है कि कमोवेश हर सत्ताधारी तानाशाह और घमंडी हो चला है। लेकिन इसे तोड़ने के लिये क्या वाकई कोई राजनीतिक संघर्ष हो रहा है। असल में लालू यही चूक रहे हैं और नीतिश इसी का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल, इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पटना के गांधी मैदान में लालू यादव और नीतिश कुमार ने 1974 से 1994 तक एक साथ संघर्ष किया। और अब इसी गांधी मैदान से नीतिश की सत्ता डिगाने के लिये लालू यादव अपने बेटे की सियासी ताजपोशी करते दिखे।
और गांधी मैदान जो बिहार ही नहीं देश की बदलती सियासत का गवाह रहा है, उसे एक बार फिर उसे संघर्ष में सत्ता पाने का लेप लगते हुये देखना पड़ा। क्योंकि जेपी और कर्पूरी ठाकुर के दौर में नाते-शिश्तेदारों के खिलाफ राजनीतिक जमीन पर खड़े होकर संघर्ष करने की मुनादी करने वाले लालू यादव कितना बदले इसकी हवा परिवर्तन रैली में बहेगी। परिवर्तन की नयी बयार बिहार की सियासत के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी तक सत्ता के लिये लालू का हर संघर्ष नीतिश की सत्ता को ही मजबूत करता रहा है। और नीतिश हमेशा ठहाका लगाकर यह कहने से नहीं चूकते कि मुझे हटाकर क्या लालू की सत्ता चाहते हैं। और बिहार की जनता खामोशी से नीतिश धर्म को ही बेहतर मान चुप हो जाती है। लेकिन इस बार लालू का वार दोहरा है, जिसमें वह खुद को माइनस कर चलते दिखे और गांधी मैदान में युवा बिहार के लिये अपने बेटों के जरीये विकल्प का सवाल उठाते दिखे तो मोदी के डंक को मुस्लिमो को चुभाकर नीतिश के आरएसएस के गोद में बैठने की बात भी कह गये।
लेकिन लालू की सबसे बड़ी मुश्किल वही कांग्रेस है, जिसकी पीठ पर सवार होकर उन्होंने दिल्ली की सत्ता का स्वाद भी लिया। अब वही कांग्रेस लालू को पीठ दिखा कर नीतिश को साधने में जुटी है। और लालू के पास इसका जवाब नहीं है जबकि कभी जेपी ने गांधी मैदान में जब नारा लगाया था इंदिरा हटाओ देश बचाओ तब लालू जेपी के साथ खड़े थे। ऐसे मोड़ पर गांधी मैदान परिवर्तन की गूंज कैसे सुन पायेगा और परिवर्तन के नाम पर सिर्फ भीड भड़क्का को ही देखकर इतना ही कह पा रहा है कि लालू का मिथ टूटा नहीं है। क्योंकि भरी दोपहरी और फसल में फंसे किसान-मजदूरों के बीच भी रैली हो गई। यह अलग बात है कि रैली ने यह संदेश भी दे दिया कि बिहार परिवर्तन चाहता है और उसे विकल्प की खोज है। लेकिन कोई परिवार, परिवर्तन या पद के नाम पर गांधी मैदान के जरीये बिहार को ठग नहीं सकता है।
यू पी ए २ एक सौ अस्सी करोड़ खर्च करके एक सौ बीस करोड़ लोगों को ये बताने की कोशिश करेगी की अब कितने मील और आगे जाना है .
बुधवार, 8 मई 2013
तन्हाई की महफ़िल
सजा क्या खूब मिलती है , किसी से दिल लगाने की
तन्हाई की महफ़िल में आदत हो गयी गाने की
हर पल याद रहती है , निगाहों में बसी सूरत
तमन्ना अपनी रहती है खुद को भूल जाने की
उम्मीदों का काजल जब से आँखों में लगाया है
कोशिश पूरी रहती है , पत्थर से प्यार पाने की
अरमानो के मेले में जब ख्बाबो के महल टूटे
बारी तब फिर आती है , अपनों को आजमाने की
मर्जे इश्क में अक्सर हुआ करता है ऐसा भी
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश मौत पाने की
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
सोमवार, 6 मई 2013
अब की बारी रेल की
पहले टू जी का खेल
फिर खेल में खेल
और अब
रेल से मेल .
फिर एक घोटाला
अब की बारी
आयी रेल की
फिर एक घोटाला
फिर एक बार मीडिया में शोर
फिर एक बार नेताओं की तू तू मैं मैं
फिर एक बार सरकार की जाँच की बात
फिर एक बार जाँच के बहाने घोटाले को दबाने की साजिश
फिर एक बार समिति का गठन
फिर एक बार जनहित याचिका की उम्मीद
फिर एक बार उच्चत्तम न्यायालय से अपेछा
फिर एक बार जनता का बुदबुदाना कि जाने दो सब एक जैसे हैं।
किन्तु
ऐसा कह कर
हम अपनी जिम्मेदारी से बिमुख नहीं हो सकते
अब समय आ गया
कि हम सब अपनेस्तर से लोगों को
आगाह करें कि भ्रष्टाचार करना
जितना बड़ा जुर्म है
उसे सहना
और भ्रष्टाचार देखकर
चुपचाप रहना भी कम बड़ा जुर्म नहीं है.
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
बुधवार, 1 मई 2013
ये कैसा समय
ये कैसी ईमानदारी
जिसके नेत्रत्ब में करोड़ों का घपला हो
ये कहाँ की सरदारी
जब कोई दुश्मन आपके घर में आ धमके
और आप स्थानीय समस्या बोलें
ये कैसा बद्दपन
कि पडोसी मुल्क आपके सैनिकों के सर काट डालें
और आप इसकी उपेछा करतें रहें
ये कैसी निति कि
कोई भी मुल्क आपकी बातों को गम्भीरता से ना लें
और जब मौका मिले पलट जाये .
ये कैसी सुरछा
कि
देश की गुड़िया और बेटियां अपने को खतरें में महसूस करें
और
करोड़ों भुखमरी के शिकार बाले देश में
चन्द लोगों के रहने के लिए अरबों फुकनें बालें अम्बानी
की सुरछा के लिए
सरकार नियमों में परिबर्तन के लिए
ब्याकुल लगे .
ये कैसा नशा कि
पानी की एक एक बूंद को तरसने को मजबूर
लोगों को उनकी दशा पर छोड़ कर
सस्ते पानी के टैंकर देकर
हरे भरे मैदान में
क्रिकेट का मजा राजनेता लें .
ये कैसा समय
राम जाने .......
प्रस्तुति
मदन मोहन सक्सेना
सोमवार, 15 अप्रैल 2013
आखिर क्यों
सड़क पर एक महिला की लाश.
बेबस घायल बच्चा
और अपनी किस्मत पर रोते उसके पिता को.. !
और देखा मंहगी गाड़ी
जो पास से गुजर रही थी
और उन में बैठे दो कौड़ी की औकात वाले
अपने की इंसान कहने वाले
समाज के लोगों को !
देखा
बस में से झांकते लोगो को
जो सिर्फ नाटक देखने और तालियाँ पीटने की ट्रेनिग लेते हैं बड़े बड़े आदर्शो से
जिनमे कभी कभी मैं खुद भी होता हूँ !
और देखा.. मरती हुई इंसानियत को
बहते हुए भावनाओं के खून को.. !
बहुत दर्द हुआ
आखिर क्यों
आज का मानब इतना स्वार्थी हो गया है
आखिर क्यों.
मदन मोहन सक्सेना
सोमवार, 8 अप्रैल 2013
ग़ज़ल (हालात)
दीवारें ही दीवारें नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले है.
उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं
जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं
जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है
समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं
ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
गुरुवार, 28 मार्च 2013
इतिश्री
अपने अनुभबों,एहसासों ,बिचारों को
यथार्थ रूप में
अभिब्यक्त करने के लिए
जब जब मैनें लेखनी का कागज से स्पर्श
किया
उस समय मुझे एक बिचित्र प्रकार के
समर से आमुख होने का अबसर मिला
लेखनी अपनी परम्परा ,प्रतिष्ठा , मर्यादा के लिए प्रतिबद्ध
थी
जबकि मैं यथार्थ चित्रण के लिए बाध्य था
इन दोनों के बीच कागज मूक दर्शक सा था
ठीक उसी तरह जैसे
आजाद भारत की इस जमीन पर
रहनुमाओं तथा अन्तराष्ट्रीय बित्तीय
संस्थाओं के बीच हुए
जायज और दोष पूर्ण अनुबंध को
अबाम को मानना अनिबार्य
सा है
जब जब लेखनी के साथ समझौता किया
हकीकत के साथ साथ कल्पित बिचारों को
न्योता दिया
सत्य से अलग हटकर लिखना
चाहा
उसे पढने बालों ने खूब सराहा
ठीक उसी तरह जैसे
बेतन ब्रद्धि के बिधेयक को पारित
करबाने में
बिरोधी पछ के साथ साथ सत्ता पछ के राजनीतिज्ञों
का बराबर का योगदान रहता है
आज मेरी प्रत्येक रचना
बास्तबिकता से कोसों दूर
काल्पनिकता का राग अलापती हुयी
आधारहीन तथ्यों पर आधारित
कृतिमता के आबरण में लिपटी हुयी
निरर्थक बिचारों से परिपूण है
फिर भी मुझको आशा रहती है कि
पढने बालों को ये
रुचिकर सरस ज्ञानर्धक लगेगी
ठीक उसी तरह जैसे
हमारे रहनुमा बिना किसी सार्थक प्रयास
के
जटिलतम समस्याओं का समाधान
प्राप्त होने कि आशा
आये दिन करते रहतें हैं
अब प्रत्येक रचना को
लिखने के बाद
जब जब पढने का अबसर मिलता है
तो लगता है कि
ये लिखा मेरा नहीं है
मुझे जान पड़ता है कि
मेरे खिलाफ
ये सब कागज और लेखनी कि
सुनियोजित साजिश का हिस्सा है
इस लेखांश में मेरा तो नगण्य हिस्सा है
मेरे हर पल कि बिबश्ता का किस्सा
है
ठीक उसी तरह जैसे
भेद भाब पूर्ण किये गए फैसलों
दोषपूर्ण नीतियों के नतीजें आने पर
उसका श्रेय
कुशल राजनेता
पूर्ब बर्ती सरकारों को दे कर के
अपने कर्तब्यों कि इतिश्री कर लेते हैं
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
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